भगवान शिव हिन्दू धर्म के सर्वोच्च आराध्य देवताओं में से हैं। शिव जी की पूजा न केवल भोग अपितु परमदुर्लभ मोक्ष गति देने में सक्षम है। शिवजी को प्रसन्न करने के उद्देश्य से की गयी पूजा-अर्चना, व्रत और उपवास कभी भी निष्प्रभावी नहीं होता। शिव महापुराण और जाबालि श्रुति आदि में ऐसे दस शैवव्रतों की चर्चा होती है जिससे शिव जी परम प्रसन्न होते हैं और सर्व मनोकामनाओं को पूर्ण करके सद्गति प्रदान करते हैं। किन्तु कलिकाल में इन व्रतों का पालन करना बड़ा कठिन है। पूर्वकाल में भगवान विष्णु, ब्रह्मा जी और माता पार्वती जी ने भगवान भोलेनाथ से मनुष्यों के परमकल्याण के उद्देश्य से 'शिवरात्रि' व्रत का माहात्म्य बताया था। शिव जी का कथन है कि भोग और मोक्ष की आकांक्षा रखने वाले मनुष्यों के लिये शिवरात्रि से हितकारक दूसरा कोई व्रत नहीं है। यह व्रत सभी के लिये धर्म का उत्तम साधन है। सभी वर्णों, आश्रमों, स्त्रियों, पुरुषों, बालकों, देवताओं आदि के लिये यह व्रत ग्राह्य है।
शिवमहापुराण में शिवरात्रि व्रत को लेकर कथा का वर्णन आता है। जिसमें अनजाने में भी किये गये शिवरात्रि व्रत से एक शिकारी की बुद्धि शुद्धि और उसे मिलने वाले 'शिवपद' की प्राप्ति की कथा है। शिवपुराण में महात्मा सूत जी नैमिषारण्य में ऋषियों से बताते हैं कि,
"प्राचीन काल में किसी वन में गुरु-द्रुह नामक एक भील रहता था। वह बड़ा बलवान था और क्रूर स्वभाव वाला था। उसके हृदय दया का कोई भाव न था। वह वन में पशुओं के शिकार से अपना जीवन-यापन करता था। उसने कभी भी कोई शुभ कर्म किया ही नहीं था। एक समय कई दिनों तक उत्तम शिकार न मिलने से वह और उसका कुटुम्ब भूख से व्याकुल हो गया। वह शिकार की तलाश में वन में भटकने लगा लेकिन पूरा दिन भटकने के बाद भी उसे कोई शिकार न मिला। दैवयोग से वह शिवरात्रि का ही पावन दिन था। अनचाहे और अज्ञानता वक्ष ही उसने और उसे पूरे परिवार ने शिवरात्रि का व्रत कर लिया।
इस तरह वन में विचरते हुये उसका पूरा दिन बीत गया। रात हो जाने के बावजूद परिजनों की व्याकुलता का ध्यान करते ही उसने खाली हाथ घर लौटने का निर्णय त्याग दिया। शिकार न मिलने से व्याकुल वह भील तालाब के घाट पास एक बेल के वृक्ष की एक डाल पर थोड़ा सा जल लेकर धनुष-बाण साधकर इस उद्देश्य से चढ़ गया की कोई पशु निश्चित ही इस तालाब पर जल पीने आयेगा और वह उसी समय उसका शिकार कर लेगा।
रात के पहले प्रहर में एक हिरणी तालाब में जल पीने आयी। उस समय उस व्याध ने धनुष से उस हिरणी की ओर निशाना साधा। उसके हाथ के धक्के से एक बेलपत्र और जल नीचे गिरा। संयोग से उस वृक्ष के नीचे एक प्राचीन स्वयम्भू शिवलिङ्ग स्थित था। वह बेलपत्र और जल सीधे शिवलिङ्ग पर अर्पित हो गया। इस तरह अनजाने में भीलराज द्वारा प्रथम प्रहर का शिवपूजन हो गया। शिवपूजन के प्रभाव से उसका बहुत सारा पाप तत्काल नष्ट हो गया। भील को स्वयं के ऊपर धनुष साधे हुये देख हिरणी घबरा गयी और उसने व्याधराज से प्रश्न किया- व्याध! आप क्या करना चाहते हो मुझे सच-सच बताओ।
व्याध ने जवाब दिया की उसके कुटुम्ब के लोग भूखे हैं, इसीलिये वह हिरणी का शिकार करना चाहता है। और कुटुम्ब सहित अपनी भूख को तृप्त करेगा। हिरणी ने उससे प्रार्थना की यदि उसके प्राण हरकर यदि व्याध और उसके परिवार का हित होता है तो वह मरने को तैयार है। लेकिन उसके बच्चे छोटे हैं और अकेले हैं। उन बच्चों को वह अपनी बहन के पास छोड़कर वापस व्याध के पास आ जायेगी। हिरणी के इस प्रस्ताव से भील सहमत नहीं हुआ तब हिरणी ने दोबारा व्याध से प्रार्थना की और कहा-
"हे व्याध! मैं तुम्हारे सामने शपथ खाती हूँ, जिससे मैं जाकर अवश्य ही वापस लौट आऊँगी। ब्राह्मण यदि वेद बेंचे और त्रिकाल सन्ध्या न करे, पत्नी यदि स्वेच्छाचारी होकर पति की अवज्ञा करे तो उन्हें जो पाप लगता है साथ ही पर उपकार को न मानने का, भगवान शिव का अनादर करने से, विश्वासघात करने से तथा धर्मद्रोह करने वालों को जो पाप लगता है वही मुझे लगे, यदि मैं वापस लौटकर न आऊँ।"
शिव पूजन से उस व्याध के कुछ पुण्य उदय हुये थे। तब हिरणी की यह शपथ सुनकर उसने उसे जाने की आज्ञा दे दी। वह हिरणी जल पीकर वहाँ से चली गयी। इस तरह से रात्रि का वह प्रहर निराहार जागरण में ही बीत गया। इसी बीच उसी हिरणी की बहन उसे ढूँढते हुये उसे तालाब के पास जल पीने के लिये आयी। तब उस हिरणी को मारने के लिये व्याध ने अपना धनुष चढ़ाया जिससे एक बार फिर जल और बेलपत्र उसी शिवलिंङ्ग पर अर्पित हो गया। और दूसरे प्रहर भी अनजाने रूप में व्याध द्वारा शिव पूजन हो गया। दूसरी हिरणी ने जब व्याध को धनुष चढ़ाये देखा तो उसने भयभीत होकर व्याध से उसे मारने का कारण पूँछा। व्याध ने उसे बताया की अपनी भूख के कारण वह उसे मारेगा।
इस पर हिरणी ने व्याध से प्रार्थना पूर्वक निवेदन किया कि "व्याध! मैं धन्य हूँ क्योंकि इस देह द्वारा किसी का उपकार होगा। किन्तु मेरे घर दो छोटे बच्चे हैं। एक बार उन्हें अपने स्वामी को सौंप दूँ फिर तुम्हारे पास मैं लौटकर आ जाऊँगी।" व्याध ने इस पर उसे इन्कार किया। तब उस हिरणी ने शपथ खाते हुए व्याध से कहा "हे व्याध! मैं भगवान विष्णु की शपथ खाकर कहती हूँ की यदि वापस न आऊँ तो अपना सारा पुण्य हार जाऊँ; क्योंकि जो वचन देकर उसे तोड़ता है अपने पुण्यों का नाश कर देता है। जो पुरुष अपनी स्त्री से धोखा कर दूसरी स्त्री के पास जाता है, जो वैदिक धर्म का उल्लन्घन कर कल्पित पन्थों पर चलता है, जो विष्णु जी का भक्त हो शिव जी की निन्दा करता है, मृत माता-पिता का श्राद्ध न कर उनकी तिथि को सूना बिताता हो, मन में भार रखकर वचन पूरा करता हो, तो उन्हें जो पाप लगे वही मुझे लगे जो मैं वापस लौटकर न आऊँ।"
व्याध ने उसे जाने की आज्ञा दे दी। शिव पूजन से उनका हृदय निर्मल हो रहा था। दूसरा प्रहर भी जागरण और निराहार ही बीत गया। लेकिन उसे भूख व्याकुल कर रही थी। हिरणी के वापस न आने से वह चकित होकर उनकी प्रतीक्षा करने लगा। इतने में उसे तालाब के पास एक हिरण दिखायी दिया। उसे मारने के लिये उसने धनुष चढ़ाया लेकिन प्रारब्धवश पुनः जल और बेलपत्र उसे शिवलिङ्ग पर अर्पित हो गया। सम्भवतः शिव जी ने उस व्याध पर दया दिखायी। और तीसरे प्रहर का पूजन भी उसने अनजान होकर कर लिया। पत्तों के गिरने से सावधान हो हिरण ने व्याध से पूछा की वह उसे क्यों मारना चाहता है। व्याध ने पुनः अपने कुटुम्ब पोषण का तर्क दिया।
हिरण ने कहा "मेरा हष्ट-पुष्ट शरीर यदि आपके कुटुम्ब के रक्षणार्थ उपयोग होगा तो ये मेरा सौभाग्य होगा। जो परोपकारी नहीं उसका सब नष्ट हो जाता है। जो सामर्थ्यशील हो कर उपकार नहीं करता परलोक में नर्कगामी होता है। मैं एक बार अपने बच्चों को उनकी माता को सौंपकर तुम्हारे पास लौट आऊँगा।"
इन घटनाक्रमों से व्याध को बड़ा विस्मय हुआ उसने हिरण से कहा की तुमसे पहले भी जो यहाँ आये वे भी मुझसे ज्ञान की बातें करके वापस लौटने का वादा करने गया पर कोई वापस नहीं आया। तुम भी जाओगे तो मेरे परिवार का पेट कैसे भरेगा। शिवजी के पूजन से उसके पाप नष्ट हो गये थे एक क्रूर शिकारी अपने शिकार से तर्क कर रहा था।
हिरण ने व्याध से कहा "मैं जो कह रहा हूँ वह सत्य है। समस्त चराचर ब्रह्माण्ड सत्य पर ही टिका हुआ है। झूठे व्यक्ति का सारा पुण्य नष्ट हो जाता है। फिर भी हे भील! मेरी प्रतिज्ञा सुनों सन्ध्याकाल में मैथुन, शिवरात्रि के दिन भोजन करने से, झूठी गवाही देने से, दूसरों की धरोहर हड़पने से तथा सन्ध्या न करने वाले द्विज को जो पाप लगता है, जिसके मुख से कभी शिव जी का नाम न निकले, पर्व के दिन श्रीफल तोड़े, अभक्ष्य का भक्षण करे, बिना शिव पूजन कर भोजन करे तो उन्हें जो पातक लगे वही मुझे लगे यदि मैं वापस न लौटूँ।"
शिवपूजन से उत्पन्न हुये पुण्य के प्रभाव से व्याध ने उस हिरण को वापस जाने की आज्ञा दी वह उससे शीघ्र लौटने का आदेश दिया। तीनों हिरण एक ही स्थान पर एकत्रित हुये और सबने प्रतिज्ञा में बंधने का अपना-अपना वृत्तान्त सुनाया। और सबने निश्चय किया की उस व्याध के पास अवश्य लौटना चाहिये। तभी ज्येष्ठ हिरणी ने अपने पति हिरण से कहा की, "स्वामी! आपके बिना बालक कैसे रहेंगे और पहले प्रतिज्ञा मैंने की है इसीलिये आप दोनों घर पर रहें, मैं ही व्याध का आहार बनूँगी।" किन्तु किसी ने अपनी प्रतिज्ञा तोड़ना उचित नहीं समझा। वे तीनों ही व्याध का आहार बनने के लिये निकल पड़े। तब उनके बच्चे भी उनके पीछे-पीछे चल पड़े।
इतने सारे शिकार को एक साथ आता देखकर व्याध अत्यन्त प्रसन्न हुआ उसने पुनः अपने धनुष पर बाण चढ़ाया जिसके झटके से पुनः बेलपत्र और जल छलक कर शिवलिङ्ग पर अर्पित हो गया। इस तरह से चौथे प्रहर का भी शिव पूजन व्याध के द्वारा हो गया और उसके सारे पाप नष्ट हो गये।
सभी हिरणों ने व्याध से कहा की "हे व्याध! शीघ्र कृपा करके हमारी देह को सार्थक करो।" हिरणों की यह बात सुनकर व्याध का हृदय करुणा और दया से भर गया। उसने विचार किया की ये हिरण धन्य हैं जो ज्ञानहीन होने पर भी परोपकार में लगे हैं। और दूसरा मैं जो की मनुष्य होकर भी दूसरों को पीड़ा देता रहता हूँ। ऐसे पाप करके मेरी गति क्या होगी? ऐसा विचार करके उसने हिरणों से कहा, "हे मृगों तुम धन्य हो तुम अपने घर पर जाओ।" व्याध द्वारा हिरणों को अभय प्रदान करने से प्रसन्न हुये भगवान महादेव उसी समय प्रकट हो गये। और उन्होंने व्याध को स्पर्श करके कहा, "हे निषादराज मैं तुम्हारे व्रत से अत्यन्त प्रसन्न हूँ वर माँगों।" भील शिवजी को देखकर तुरन्त जीवनमुक्त हो गया। और "मैंने सब पा लिया" कहते हुये भगवान के चरणों में गिर पड़ा।
तब शिव जी ने उसे वर देते हुए उसे 'गुह' नाम दिया और कहा, "हे व्याध! मैं तुम्हारे पूजन से अत्यन्त प्रसन्न हूँ तुम शृंगवेरपुर जाकर दिव्यभोगों का उपभोग करो तुम्हारे कुल की वृद्धि होती रहेगी। भगवान श्रीराम एक दिन तुम्हारे घर पधारेंगे। तथा तुम्हारी उनसे मित्रता होगी। और अन्त में तुम दुर्लभ मोक्ष प्राप्त कर लोगे।" इसी समय हिरण भगवान के दर्शन के प्रभाव से मृग योनि त्याग कर दिव्यदेह धारण करके दिव्यधाम चले गये। भील भी भगवान शिव के वरदान के प्रभाव से दिव्यभोग का पहले तो भोग किया और बाद में श्रीराम की कृपा से उसने सायुज्य मोक्ष प्राप्त किया।
सूत जी कहते हैं कि अनजाने में किये गये व्रत अनुष्ठान के प्रभाव से निषादराज का कल्याण हो गया। फिर जो शिवरात्रि व्रत को भक्तिभाव से करते हैं उन्हें तो दुर्लभ भोग और परम मुक्ति की प्राप्ति साध्य हो जाती है । इस लोक में नाना प्रकार के व्रत, विविध तीर्थ, दान और कठिनतम तप भी शिवरात्रि के व्रत की समानता नहीं कर सकते। इसीलिये शिवरात्रि व्रत को 'व्रतराज' कहा गया है।